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Tuesday 5 February 2013

दरिंदों के कब्जे में इंसानियत


नवरुणा अपहरण: संघर्ष के 100 दिन  

संघर्ष का अपना एक अलग ही स्वतंत्र अस्तित्व है। संघर्ष तमाम मुसीबतों को झेलते हुए जीवन जीने की हो या बिन बुलाई मुसीबतों से बचने के लिए किया गया हो,, यह हमेशा एक विशेष प्रकार की अनुभूति से परिचित कराता है। संघर्ष का भी अपना एक अलग रंग है, अलग अंदाज है। कुछ अपने लिए, कुछ अपनों के लिए और कुछ अपना समझने वालों के लिए। यह कम, ज्यादा प्रत्येक मनुष्य के जीवन का हिस्सा बन जाता है या बना दिया जाता है। अमूमन अफ़सोस और संघर्ष का कोई रिश्ता नहीं होता लेकिन नवरुणा अपहरण के केस में न्याय पाने को किये गए पिछले 100 दिनों के संघर्ष ने जीवन में अफ़सोस व संघर्ष का ऐसा घालमेल किया है कि स्वभाव से हमेशा "बचकर निकलने वाला" मिजाज सच पूछिए तो अब विद्रोही हो गया है। वह मिजाज जो डरता नही है, लड़ता है और लड़ने को प्रेरित करता है। लेकिन इस संघर्ष में लड़ाई अपनो से ही है, यह देखकर पीड़ा भी होती है, अफ़सोस भी।  

अपनों से बिछुड़कर जीने की पीड़ा क्या होती है, हम बखूबी जानते है लेकिन अपनों को खोने की डर के साए में पिछले 143 दिनों से जी रहे नवरुणा के माँ-बाप-बहन-चाचा-चाची-चचेरे भाई सहित सभी रिश्तेदारों के कष्ट हम रत्तीभर नहीं महसूस कर सकते। कितना दुःख झेला होगा, वियोग में कितने आंसू बहाए होंगे! तमाम सहयोग करने के बावजूद असहयोग का आरोप लगने पर कैसी पीड़ा महसूस होती होगी, यह सोचकर भी असहज हो जाते है हम। अगर नवरुणा के परिजनों का राज्य सरकार और वहां की पुलिस पर से भरोसा उठ गया है तो कोई हमें बताएं, इसमें उन्होंने कौन सा अपराध किया है! 
    
यह स्थिति केवल किसी व्यक्ति विशेष का नहीं है बल्कि "सेव नवरुणा कैम्पेन" के सभी अहम सहयोगी सहित देशभर में फैले सैंकड़ों शुभचिंतकों का है, जिनका मन इस असंवेदनशील, असहिंष्णु व्यवस्था से खिन्न हो चूका है। उनका जीवन के सुरक्षा की गारंटी देनेवाले संस्थाओं पर से विश्वास डिगने लगा है। जीवन जीने और बोलने की स्वतंत्रता व सुरक्षा से सम्बंधित देशव्यापी चिंता के मद्देनजर, ऐसी दुखद स्थिति में यह बात और परेशान कर दे रही है कि कैसे जी पाएंगे इन परिस्थितियों में, जहाँ न्याय पाने के लिए किए जा रहे संघर्ष में न्याय मिलना तो दूर, न्याय मिलने की दिलाशा भी नहीं मिलती। उलटे धमकियाँ मिलती है। परेशानी सहनी पड़ती है। भरोसा, कभी न पूरा होनेवाले वादों से टकराकर, टूटकर, बिखर सा जाता है। लेकिन तत्क्षण एक आवाज आती है अन्दर से कि फिर बिना भरोसे की इस दुनिया में डर-डर के जीना भी क्या जीना! लड़ो! अंतिम दम तक लड़ो! लड़ते लड़ते न्याय छीन सकों तो छीन लो, या फिर कभी न खत्म होनेवाली लड़ाई में लीन होकर दुनिया के इस रंगमंच से विलीन हो जाओ! आज किसी और के साथ हुआ, कल तुम्हारे साथ होगा तो क्या तुम शांत बैठ जाओगे? अगर नहीं तो फिर अपना समझकर इस लड़ाई को अंजाम तक पहुचाएं बिना हार मत मानो। अगर जबाब हाँ में तो फिर इस लड़ाई की शुरुआत क्यों किया था, जब इसे अंजाम तक पहुँचाएं बगैर छोड़ देना था। न्याय अधूरी रही तो अपने को काफी माफ़ नहीं कर पाओगे। लोग ताना देंगे, गलियां भी सुनाएंगे।             

नवरुणा मामले में देश की जिम्मेदार संस्थाओं की स्थापना के उदेश्यों के संबंध में लिखे बड़े बड़े दावें, ऐसे धराशायी होते दिखे, मानो अबतक रुई के ढेर को ही पहाड़ समझ बैठने की भूल कर बैठा था। एक संस्था ने तो सब्र करने की हदें पार कर दी। एक ऑफिस से बगल के दुसरे ऑफिस में अपहरण जैसे मामले की चिठ्ठी जाने में पुरे एक महीने लगे। वह भी तब, जब कम से कम 10 बार फ़ोन किया गया, जल्द करवाई करने की गुहार लगाई गई, परिजनों के दर्द की दुहाई दी गई। पुलिस और सरकार के व्यवहार-चरित्र, जो अबतक सफ़ेद परत के तले छिपा था, उसके क्रूर चेहरा का नजारा देखने को मिला तो हर दम खबरों के पीछे मानवीयता को पीछे छोड़ने वाले मीडिया के भी अलग-अलग रंग दिखे। 

पुलिस, सरकार, मीडिया की मज़बूरी तो फिर भी समझ में आती है,  नवरुणा के मामले में सामाजिक, राजनीतिक व्यवस्थाओं ने भी काफी निराश किया। समाज के ठेकेदारों की असली तस्वीर दिखाई दी। नवरुणा को लेकर चुप्पी से असल में "सामाजिक जिम्मेवारी" शब्द का चीरहरण होते दिखा।  ऐसा नहीं था कि सेव नवरुणा कैम्पेन से जुड़े लोगों के व्यक्तिगत जीवन  सामाजिक, राजनीतिक संस्थाओं से अछूते रहे हो और यह जीवन में कोई पहला दुर्भाग्यजनक घटना दिखाई पड़ी हो। लेकिन नवरुणा की सुरक्षा को लेकर सवाल उठाना क्या सामाजिक, राजनीतिक संस्थाओं की ही बपौती थी। ऐसी घटना आज नवरुणा के साथ हुई , कल किसी और के साथ भी हो सकती है। क्या शहर में रहनेवाले लोगो में से किसी की व्यक्तिगत स्तर पर जिम्मेदारी नहीं बनती थी कि वह नवरुणा को घर लौटाने की मांग प्रभावशाली तरीके से करता ? आम आदमी के हैसियत से कोई और यह सवाल पूछने की हिम्मत नहीं दिखा सकता था कि नवरुणा कहाँ है और उसको अबतक क्यूँ नहीं ढूंढा गया ? कारण कुछ भी हो, इस शर्मनाक घटना के जिम्मेवार कोई भी हो, उस बच्ची की जान बचने चाहिए। लेकिन ऐसा अबतक होता नही दिखा। 

देश में अनेको अपहरण की घटनाएँ होती रहती है। हत्या, लुट, बलात्कार जैसी वारदातों की फेहरिस्त प्रतिदिन लम्बी होती जा रही है। लेकिन देश में कुछ मामले ऐसे भी देखने को मिलते है, जहाँ लगता है कि इंसानियत दरिंदों के कब्जे में चली गयी है। कानून का राज, अपराधियों के साम्राज्य को बचाने में जुटी दिखाई पड़ती है। नवरुणा के मामले में भी शुरुआत से यही तस्वीर दिखाई पड़ी। पुलिस, सरकार की भूमिका सदैव संदिग्ध रही। कभी न सुना था, न कभी सोचा था कि सुशासन राज में पुलिसिया सोच की हद इतने घृणित स्तर तक पहुँच जाएगी कि वह 12 साल की बच्ची के अपहरण को प्रेम प्रसंग के रंग में रंग देगी।  बेटी के चरित्र पर लांक्षण लगाकर, बेटी के गम में घुट-घुटकर जी रहे बाप की पीड़ा और माँ के आंसू को छलने का काम करेगी ! सरकार इतनी असंवेदनशील, निर्दयी हो जाएगी कि बेटी की याद में बिलख-बिलख कर दिन रात रोनेवाली माँ के हाथों से ज्ञापन लेना तो दूर, झूठी दिलासा भी नहीं देगी और उलटे ज्ञापन भी  फड़वा देगी।   

कौन जानता था, कौन है नवरुणा! क्या गुजरी होगी उसपर, जब दरिंदे उसे उठा कर लें गए होंगे घर से। यह सोचकर शारीर का रोम-रोम सिहर जाता है।  हम जितने भी विद्यार्थी सेव नवरुणा से सम्बंधित है, किसी ने भी नवरुणा को कभी नहीं देखा। स्वयं मुजफ्फरपुर में जीवन के तक़रीबन 6 वर्ष बिताने के बाबजूद कभी नवरुणा की गली से नहीं गुजरा, मिलने की बात तो दूर रही। लेकिन इंसानियत के नाते जब लोकतान्त्रिक मर्यादा में रहकर, पुलिसिया उदासीनता के विरोध में बिगुल 28 अक्टूबर, 2012 को नार्थ कैम्पस से फूंका गया तो न केवल पुलिस होश में आई बल्कि उसी जोश में दिल्ली धमकाने भी आ धमकी। खैर मुजफ्फरपुर से लेकर दिल्ली तक उठी आवाज ने पुलिस को यह विवश किया कि वह मामले को अपहरण माने लेकिन बाद के दिनों में जिस तरीके से इस केस में प्रगति हुई, उसने और भी शंका पैदा की। आज स्थिति यह है कि एक षड्यंत्र के तहत नवरुणा के घर के समीप बरामद कंकाल की आड़ में, ऐसा जाल बुना जा रहा है, जिसमे फंसकर नवरुणा की जिन्दगी रह गई है। मेडिकल टेस्ट के नामपर आम जनता के ध्यान भटकाने की साजिश रची जा रही है ताकि कोई यह पूछने वाला न रहे कि आखिर नवरुणा कहाँ है? 

बचपन से सुनता आया था कि मुजफ्फरपुर की धरती जुब्बा सहनी, खुदीराम बोस जैसे क्रांतिकारियों, सामाजिक रूप से जागरूक लोगों की धरती रही है। अनेक क्रांतियों, सामाजिक आन्दोलनों के बीज तिरहुत की इस धरती पर बोए गए जो देश में मिसाल बना। लेकिन नवरुणा के मामले में क्रांतिकारियों की धरती पर लोकतान्त्रिक तरीके से एक बेटी के लिए आवाज भी ढंग से नहीं उठी। दिल्ली की दामिनी के लिए आंसू बहाने वाले तथाकथित समाज के जागरूक, प्रबुद्ध लोग नवरुणा का नाम लेने से भी कतराते रहे। क्या सिर्फ इसलिए कि नवरुणा के नामपर उनका नाम अगले दिन अख़बारों में नहीं छपता या सिर्फ इसलिए कि नवरुणा का यह दोष है कि वह तथाकथित रूप से बिहार के इस प्रबुद्ध, समृद्ध शहर में किसी के जाती की नहीं थी। राजनीतिक वर्ग क्या सिर्फ इसलिए शांत रहा क्यूंकि बंगाली मूल की नवरुणा उनके वोट बैंक का हिस्सा नहीं बन सकती थी? हमें यह कहने में कोई संकोच नही है कि जिस धरती ने पूरी दुनिया को लोकतंत्र दिया, वही पर लोकतान्त्रिक मूल्यों की धज्जियाँ उड़ती रही और लोग तमाशबीन बने रहे। यही वह कायरता है जिसने बिहार के नसीब में दशकों से बदनामी की गठरी ढ़ोने को मजबूर किया है।         

यह तो समय बताएगा कि आखिर नवरुणा के सुरक्षित घर वापसी हेतु लगाया गया दिमाग, महत्वपूर्ण समय और विद्यार्थी जीवन की जरूरतों में कटौती कर लगाई गई छोटी सी राशी,  देश की एक बेटी को बचाने व उसे न्याय दिला पाने के काम आ पाई या नहीं, लेकिन इतना जरुर है कि सब चेहरे बेनकाब हुए है, जो अब तक सफेदपोश दिखे, समझे जाते रहे है। संयुक्त राष्ट्र संघ को छोड़कर भारत की सभी जिम्मेवार संस्थाओं में गुहार लगाने वाले छात्र थके तो नहीं लेकिन कुछ हद तक हताश जरुर हो गए है। ईमानदारी से कहे तो अब तक सम्मान के हक़दार समझी जानेवाली कई संस्थाएं कम से कम सेव नवरुणा कैम्पेन चलाने वाले हम छात्रों की नजर में अब सम्मानित नही रहे। 

नवरुणा के मसले पर लॉ फैकल्टी, दिल्ली विश्वविद्यालय व मुजफ्फरपुर से किसी न किसी रूप में जुड़े दोस्तों व शुभचिंतकों ने जिस तरीके से भावनाओं के स्तर पर हमलोगों का हौसला बढ़ाने से लेकर, उचित सलाह देने तक में जिस प्रकार की तत्परता दिखाई, वह अपने आप में अतुलनीय है। शायद उनके मदद के बगैर 100 दिनों की यह यात्रा पूरी नहीं हो पाती, हमलोग कुछ कर भी नहीं पाते। वैसे तो हम सबने ज्यादा कुछ नही किया नवरुणा को लेकर, फिर भी उम्मीद है, यह छोटा सा संघर्ष व्यर्थ नहीं जाएगा। डर बस इसी बात का रहता है कि न्याय की यह लड़ाई अपने मुकाम तक पहुंचे बिना कही ठहर न जाएँ। वह भरोसा न टूट जाए जिसे लेकर सेव नवरुणा की आवाज बुलंद की गई थी, बिना किसी समर्थन, सहयोग और सामर्थ्य के! आस्तिक होने के नाते ईश्वर पर अटूट विश्वास है कि सबकी कोसिस, दुआएं बेकार नहीं जाएगी। हमारी आवाज जरुर नवरुणा के अपहरणकर्ताओं तक पहुंचेगी, उनका कलेजा पसीजेगा और नवरुणा अपने घर, सबको रुलाकर ही सही, लौट आएगी। 

अंतिम में नीरज जी के इन शब्दों से मन को दिलाशा देते हुए;

मेरे सृजन हताश न हो,
दनुज थकेगा, मनुज चलेगा, मेरे देश उदास न हो।
फिर दीप जलेगा, तिमिर ढलेगा। 

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